क्या विफल गया नोटबन्दी का मूल उद्देश्य?--------
नोटबन्दी का मूल उद्देश्य काले धन पर प्रभावी रोकथाम और केंद्रीय राजस्व में भारी वृद्धि करना था,
किन्तु यह मूल उद्देश्य विभिन्न कारणों से पूरा होता हुआ नही दिख रहा है।
दरअसल भारतीय रिजर्व बैंक जितनी कीमत के नोट छापकर जारी करती है उसकी कीमत के बराबर सोना रिजर्व में रखता है,उस सोने के मान के कारण ही हर करेंसी पर लिखा होता है कि "मैं धारक को __रूपये अदा करने का वचन देता हूँ।।
जानकारी मिली है कि 500₹ और 1000₹ के नोट के रूप में रिजर्व बैंक द्वारा करीब 16 लाख करोड़ रूपये की करेंसी जारी की थी,
नोटबन्दी करते हुए मूल सोच यह थी कि जिनके पास 500₹ और 1000₹ के नोट के रूप में काला धन होगा वो उसे घोषित कर बैंको में जमा करवाने का जोखिम नही उठाएंगे, और उसे नष्ट कर देंगे या 30 दिसम्बर के बाद वो स्वत नष्ट हो जाएगी।
प्रारम्भ में अनुमान लगाया गया था कि नोटबन्दी के निर्णय के बाद उक्त 16 लाख करोड़ की करेंसी में से लगभग 25% यानि करीब 4 लाख करोड़ की करेंसी बैंको में वापस नही आएगी।
चूँकि उस करेंसी के बराबर रिजर्व बैंक के पास सोना उपलब्ध है इसलिए रिजर्व बैंक उतने ही मूल्य के नए नोट छाप सकेगा वो भी बिना मुद्रा स्फीति बढ़ाए हुए।
यह अनुमानित 4 लाख करोड़ की धनराशि रिजर्व बैंक का शुद्ध लाभ होता और रिजर्व बैंक इसे राष्ट्रीय आय घोषित कर देता जैसा की पहले से तय था।।
इसके अतिरक्त बैंको में जो धनराशि जमा हुई है उनमे पेनल्टी आदि लगाने से आयकर के रूप में करीब 50 हजार करोड़ रूपये के अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति का भी अनुमान है जो पूरा हो सकता है।
किन्तु मूल उद्देश्य विफल क्यों हुआ????
मूल उद्देश्य विफल इसलिए हो गया क्योंकि नकदी के रूप में काला धन रखने वालो ने विभिन्न जुगत भिड़ाकर या तो बैंक अधिकारियो की मिलीभगत से अपने नोट बदलवाकर नई करेंसी प्राप्त कर ली, या सोने इत्यादि में निवेश कर लिया।।
अधिकतर राजनेताओं के पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसी हैं जिनमे जान बूझकर पुरानी अमान्य करेंसी जारी रखी गयी जिससे पेट्रोलपंप, गैस एजेंसी, ट्रांसपोर्टर, परिवहन विभाग के माध्यम से बड़ी मात्रा में 500₹ और 1000₹ की नकदी के रूप में उपलब्ध काला धन ठिकाने लगा दिया गया।।
रही सही कसर कुछ बैंककर्मियो ने पूरी कर दी जो आम जनता को पुरे दिन लाइन में खड़ा रखकर कैश खत्म होने की घोषणा कर देते हैं और चोर दरवाजे से बड़ी मछलियो की पुरानी करेंसी को बदलकर नए नोट उन्हें उपलब्ध करवा रहे हैं।
अब हालत यह है कि रिजर्व बैंक द्वारा जारी 16 लाख करोड़ की पुरानी करेंसी (500/1000₹ के नोट के रूप में) में से करीब 4 लाख करोड़ पहले से बैंको में जमा था, शेष 12 लाख करोड़ जो नागरिको पर सफेद या काले धन के रूप में उपलब्ध था, नोटबन्दी के एक माह पूरा होने से पहले ही उसमे से 9 लाख करोड़ बैंको में जमा भी हो चूका है,
और शेष 3 लाख करोड़ में से भी अधिकांश धनराशि 30 दिसम्बर तक किसी न किसी रूप में आ ही जाएगी,
जिसका साफ़ अर्थ है कि भारतीय रिजर्व बैंक जो कई लाख करोड़ के लाभ की उम्मीद में था, वो उद्देश्य अब विफल होता दिखाई दे रहा है।
इस आय से देश पर विदेशी कर्जो को चुकाया जा सकता था,और कई जनकल्याणकारी योजनाएं लागु की जा सकती थी पर अब ऐसा होता नही दिख पा रहा है।
अतिरिक्त आयकर के रूप में जो राजस्व मिलेगा भी वो भी इस निर्णय से हुए लघु मध्यम उद्योगों में तालाबन्दी, बेरोजगारी, मन्दी, कम बिक्री से जो विभिन्न कर राजस्व में कमी आएगी उसकी तुलना में बेकार सिद्ध होगा, इसी कारण अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों द्वारा भी भारत की जीडीपी व्रद्धि दर का अनुमान घटा दिया गया है,
माना जा रहा है कि इस निर्णय से आई मन्दी से भारत की जीडीपी वृद्धि दर में 2% की भारी गिरावट होगी जिससे देश में अचानक से बेरोजगारी और अव्यवस्था फ़ैल सकती है और उत्पादन भी ठप हो सकता है।।
आज एक महीना बाद भी करोड़ो देशवासी बजाय मेहनत मजदूरी करके उत्पादन करने के बैंक/एटीम की लाइन में लगे हुए हैं।
निम्न मध्यम वर्ग ,छोटे दुकानदारो मध्यम व्यापारियो को चोर की दृष्टि से देखा जा रहा है जबकि किसी भृष्ट राजनेताओ माफियाओ का बाल भी बांका नही हो पाया है।
और अब निर्णय असफल होता देखकर कैशलेस इकॉनोमी का जुमला दिया जा रहा है, ऑनलाइन ट्रांसेक्शन, फंड ट्रांसफर, पेटीएम आदि के द्वारा पूर्ण क्रांति की बात उस देश में की जा रही है जहाँ आज भी 40% आबादी अनपढ़ है।
कुल मिलाकर कोई अंधभक्त चाहे जितनी मर्जी जयजयकार करे किन्तु यह शानदार और उचित निर्णय था जिसे लागू करने में इतनी घोर लापरवाही बरती गयी कि इस निर्णय का मूल उद्देश्य ही विफल होता दिख रहा है।इस लापरवाही के जिम्मेदार वित्तमंत्री अरुण जेटली और आरबीआई गवर्नर हैं।
मैं भले ही मोदीभक्त नही हूँ किन्तु राष्ट्रभक्त अवश्य हूँ, मोदी जी का और उनके इस निर्णय का प्रशंसक भी हूँ।
किन्तु नोटबन्दी के राष्ट्रहित के निर्णय का निकृष्ट कोटि के क्रियान्यवयन होने से इसका मूल उद्देश्य ही विफल हो गया है। जिसका मुझे दुःख है।
नोटबन्दी का मूल उद्देश्य काले धन पर प्रभावी रोकथाम और केंद्रीय राजस्व में भारी वृद्धि करना था,
किन्तु यह मूल उद्देश्य विभिन्न कारणों से पूरा होता हुआ नही दिख रहा है।
दरअसल भारतीय रिजर्व बैंक जितनी कीमत के नोट छापकर जारी करती है उसकी कीमत के बराबर सोना रिजर्व में रखता है,उस सोने के मान के कारण ही हर करेंसी पर लिखा होता है कि "मैं धारक को __रूपये अदा करने का वचन देता हूँ।।
जानकारी मिली है कि 500₹ और 1000₹ के नोट के रूप में रिजर्व बैंक द्वारा करीब 16 लाख करोड़ रूपये की करेंसी जारी की थी,
नोटबन्दी करते हुए मूल सोच यह थी कि जिनके पास 500₹ और 1000₹ के नोट के रूप में काला धन होगा वो उसे घोषित कर बैंको में जमा करवाने का जोखिम नही उठाएंगे, और उसे नष्ट कर देंगे या 30 दिसम्बर के बाद वो स्वत नष्ट हो जाएगी।
प्रारम्भ में अनुमान लगाया गया था कि नोटबन्दी के निर्णय के बाद उक्त 16 लाख करोड़ की करेंसी में से लगभग 25% यानि करीब 4 लाख करोड़ की करेंसी बैंको में वापस नही आएगी।
चूँकि उस करेंसी के बराबर रिजर्व बैंक के पास सोना उपलब्ध है इसलिए रिजर्व बैंक उतने ही मूल्य के नए नोट छाप सकेगा वो भी बिना मुद्रा स्फीति बढ़ाए हुए।
यह अनुमानित 4 लाख करोड़ की धनराशि रिजर्व बैंक का शुद्ध लाभ होता और रिजर्व बैंक इसे राष्ट्रीय आय घोषित कर देता जैसा की पहले से तय था।।
इसके अतिरक्त बैंको में जो धनराशि जमा हुई है उनमे पेनल्टी आदि लगाने से आयकर के रूप में करीब 50 हजार करोड़ रूपये के अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति का भी अनुमान है जो पूरा हो सकता है।
किन्तु मूल उद्देश्य विफल क्यों हुआ????
मूल उद्देश्य विफल इसलिए हो गया क्योंकि नकदी के रूप में काला धन रखने वालो ने विभिन्न जुगत भिड़ाकर या तो बैंक अधिकारियो की मिलीभगत से अपने नोट बदलवाकर नई करेंसी प्राप्त कर ली, या सोने इत्यादि में निवेश कर लिया।।
अधिकतर राजनेताओं के पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसी हैं जिनमे जान बूझकर पुरानी अमान्य करेंसी जारी रखी गयी जिससे पेट्रोलपंप, गैस एजेंसी, ट्रांसपोर्टर, परिवहन विभाग के माध्यम से बड़ी मात्रा में 500₹ और 1000₹ की नकदी के रूप में उपलब्ध काला धन ठिकाने लगा दिया गया।।
रही सही कसर कुछ बैंककर्मियो ने पूरी कर दी जो आम जनता को पुरे दिन लाइन में खड़ा रखकर कैश खत्म होने की घोषणा कर देते हैं और चोर दरवाजे से बड़ी मछलियो की पुरानी करेंसी को बदलकर नए नोट उन्हें उपलब्ध करवा रहे हैं।
अब हालत यह है कि रिजर्व बैंक द्वारा जारी 16 लाख करोड़ की पुरानी करेंसी (500/1000₹ के नोट के रूप में) में से करीब 4 लाख करोड़ पहले से बैंको में जमा था, शेष 12 लाख करोड़ जो नागरिको पर सफेद या काले धन के रूप में उपलब्ध था, नोटबन्दी के एक माह पूरा होने से पहले ही उसमे से 9 लाख करोड़ बैंको में जमा भी हो चूका है,
और शेष 3 लाख करोड़ में से भी अधिकांश धनराशि 30 दिसम्बर तक किसी न किसी रूप में आ ही जाएगी,
जिसका साफ़ अर्थ है कि भारतीय रिजर्व बैंक जो कई लाख करोड़ के लाभ की उम्मीद में था, वो उद्देश्य अब विफल होता दिखाई दे रहा है।
इस आय से देश पर विदेशी कर्जो को चुकाया जा सकता था,और कई जनकल्याणकारी योजनाएं लागु की जा सकती थी पर अब ऐसा होता नही दिख पा रहा है।
अतिरिक्त आयकर के रूप में जो राजस्व मिलेगा भी वो भी इस निर्णय से हुए लघु मध्यम उद्योगों में तालाबन्दी, बेरोजगारी, मन्दी, कम बिक्री से जो विभिन्न कर राजस्व में कमी आएगी उसकी तुलना में बेकार सिद्ध होगा, इसी कारण अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों द्वारा भी भारत की जीडीपी व्रद्धि दर का अनुमान घटा दिया गया है,
माना जा रहा है कि इस निर्णय से आई मन्दी से भारत की जीडीपी वृद्धि दर में 2% की भारी गिरावट होगी जिससे देश में अचानक से बेरोजगारी और अव्यवस्था फ़ैल सकती है और उत्पादन भी ठप हो सकता है।।
आज एक महीना बाद भी करोड़ो देशवासी बजाय मेहनत मजदूरी करके उत्पादन करने के बैंक/एटीम की लाइन में लगे हुए हैं।
निम्न मध्यम वर्ग ,छोटे दुकानदारो मध्यम व्यापारियो को चोर की दृष्टि से देखा जा रहा है जबकि किसी भृष्ट राजनेताओ माफियाओ का बाल भी बांका नही हो पाया है।
और अब निर्णय असफल होता देखकर कैशलेस इकॉनोमी का जुमला दिया जा रहा है, ऑनलाइन ट्रांसेक्शन, फंड ट्रांसफर, पेटीएम आदि के द्वारा पूर्ण क्रांति की बात उस देश में की जा रही है जहाँ आज भी 40% आबादी अनपढ़ है।
कुल मिलाकर कोई अंधभक्त चाहे जितनी मर्जी जयजयकार करे किन्तु यह शानदार और उचित निर्णय था जिसे लागू करने में इतनी घोर लापरवाही बरती गयी कि इस निर्णय का मूल उद्देश्य ही विफल होता दिख रहा है।इस लापरवाही के जिम्मेदार वित्तमंत्री अरुण जेटली और आरबीआई गवर्नर हैं।
मैं भले ही मोदीभक्त नही हूँ किन्तु राष्ट्रभक्त अवश्य हूँ, मोदी जी का और उनके इस निर्णय का प्रशंसक भी हूँ।
किन्तु नोटबन्दी के राष्ट्रहित के निर्णय का निकृष्ट कोटि के क्रियान्यवयन होने से इसका मूल उद्देश्य ही विफल हो गया है। जिसका मुझे दुःख है।
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